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पु॒रा सं॑बा॒धाद॒भ्या व॑वृत्स्व नो धे॒नुर्न व॒त्सं यव॑सस्य पि॒प्युषी॑। स॒कृत्सु ते॑ सुम॒तिभिः॑ शतक्रतो॒ सं पत्नी॑भि॒र्न वृष॑णो नसीमहि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

purā sambādhād abhy ā vavṛtsva no dhenur na vatsaṁ yavasasya pipyuṣī | sakṛt su te sumatibhiḥ śatakrato sam patnībhir na vṛṣaṇo nasīmahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रा। स॒म्ऽबा॒धात्। अ॒भि। आ। व॒वृ॒त्स्व॒। नः॒। धे॒नुः। न। व॒त्सम्। यव॑सस्य। पि॒प्युषी॑। स॒कृत्। सु। ते॒। सु॒म॒तिऽभिः॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। सम्। पत्नी॑भिः। न। वृष॑णः। न॒सी॒म॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:16» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) असंख्य बुद्धियोंवाले जन आप (यवसस्य) यवादि अन्नसम्बन्धी (वत्सम्) बछड़े को (पिप्युषी) वृद्ध (धेनुः) गौ (न) जैसे वैसे वा (सुमतिभिः) जिनकी सुन्दर बुद्धियाँ उन (पत्नीभिः) पत्नियों के साथ (वृषणः) बलवान् सेचनकर्त्ता जन जैसे (न) वैसे (ते) आपके (सम्बाधात्) सम्बन्ध से (पुरा) प्रथम (नः) हम लोगों को (अभि, आ, ववृत्स्व) सब ओर से अच्छे प्रकार वर्तो, जिससे हम लोग (सकृत्) एक बार (सुसन्नसीमहि) सुन्दरता से जावें ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो और प्राणियों को पीड़ा से निवृत्त करते हैं, वे आप भी पीड़ा से निवृत्त होते हैं। जैसे क्रियमाण पत्नी के साथ पति आनन्दित होता है, वैसे सज्जन के साथ सब आनन्दित होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शतक्रतो त्वं यवसस्य वत्सं पिप्युषी धेनुर्न सुमतिभिः पत्नीभिर्वृषणो न ते तव सम्बाधात्पुरा नोऽस्मान् त्वमभ्याववृत्स्व यतो वयं सकृत्सु सन्नसीमहि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरा) प्रथमतः (सम्बाधात्) (अभि) (आ) (ववृत्स्व) (नः) अस्माकम् (धेनुः) गौः (न) इव (वत्सम्) (यवसस्य) (पिप्युषी) वृद्धा (सकृत्) एकवारम् (सु) (ते) तव (सुमतिभिः) शोभना मतयो यासान्ताभिः (शतक्रतो) असङ्ख्यप्रज्ञ (सम्) (पत्नीभिः) (न) इव (वृषणः) बलिष्ठाः सेक्तारः (नसीमहि) गच्छेम। नसत इति गतिकर्मा निघं० २। १४। ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। येऽन्यान्प्राणिनः पीडातो निवर्त्तयन्ति ते स्वयमपि पीडातो निवर्त्तन्ते यथा क्रियमाणया पत्न्या सह पतिर्मोदते तथा सज्जनसङ्गेन सर्वे आनन्दन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे इतर प्राण्यांच्या त्रासाचे निवारण करतात ते स्वतःही त्रासापासून निवृत्त होतात. जसे पत्नीबरोबर पती आनंदित असतो तसे सज्जनांबरोबर सर्व आनंदित असतात. ॥ ८ ॥